बुधवार, 9 फ़रवरी 2011

खता

ये मेरी दूसरी प्रस्तुति है जिसमें मैंने उन सब बातों का ध्यान रखने का प्रयास किया है जो मेरे मित्रों ने मुझे मेरी पहली कविता का प्रोत्साहन देते हुए कहा था. आप सब की हौंसला अफजाई की वजह से ही आज मैं आपके सम्मुख अपनी दूसरी रचना लेकर आई हूँ.

निगाहों की खता नहीं , ये तेरे चेहरे का नूर है जो उनमें बस गया 
पलकों के कोने में नींद बनकर सपनो में घुल गया

दिल की खता नहीं , ये तेरे लफ़्ज़ों का सुरूर है जो दबे एहसासों को जिंदा कर गया
धड़कन की गहराईयों में जाकर दुआ बनकर कबूल हो गया 

कहकशों की खता नहीं , ये तेरी चाहत का फ़ितूर है जो बेगाने अंजुमन को भी एक  तसव्वुर दे गया
सांसों में  उलझे  तेरे नाम  की कसक  को उस पल जिंदा सा  कर गया  

तकदीर की खता नहीं , ये खुदा  का कसूर है जो हर दिल में मोहब्बत दे गया
बहती हवा बनकर  जुड़ी पतंगों को जुदा कर गया

फासलों की खता  नहीं , ये तेरी मोहब्बत का जूनून है जो भीड़ में भी तनहाइयों का आलम कर गया 
इस पाक और बेबस दिल पर  ग़मों  की गहरी चोट कर गया

बंदिशों की खता नहीं , ये दुनिया का दस्तूर है जो हर  ख्वाब  को हकीकत से  तार्रुफ़ कर गया 
समंदर में उठे उस तूफान की तरह जो लहरों को बिखेर कर किनारे कर गया